कुछ नज़्मे.. कुछ जज़्बात..
....
ऐ कागज़,
गर तुने अपनाया ना होता
तो शायद, मेरे अल्फाज़
जिंदगी की बेरंगसी स्याही में,
कबके बह चुके होते..
.....
क्या लिखती हुं पता नही
क्युं लिखती हुं खता नही
कुछ बातें कही नही जाती
कुछ नज्मे गायी नही जाती
सवालों में उलझे हुए दिल
अक्सर जीना भूल जाते है
हम ही शायद सही है यहां
जवाबों से महरूम होते हुए
अल्फाजों में सुकून पाते है..
.....
ऐ रात, तेरे आॅंचल में
छुपाले तू मुझे
इन बादलोंसे दूर कहीं
ले चल तू मुझे
युॅं न ऐतराज कर
आज़माने में मुझे
मै भी हूं उसी मोड पे, जहाॅं
अंधेरा रुठ़ता है चमन से
ऐ रात, तेरे आॅंचल में
छुपाले तू मुझे..
तेरी बेचैनसी स्याही में
बरसना है मुझे
खामोश से लम्हों को
जी भर के जीना है मुझे
ऐ रात, तेरे आॅंचल में
छुपाले तू मुझे..
एक तू है जिसे मिलके
मैं मिलती हूं खुदसे
तेरे आॅंगन में बरसतें है
गीत, मेरी कलम से
ऐ रात, तेरे आॅंचल में
छुपाले तू मुझे..
इन बादलोंसे दूर कहीं
ले चल तू मुझे..!!
.....
पलटते हुए पन्नों की बात छिडी है
तो सुनो,
पन्ने दिल के हो या कागज़ के,
शोर तो एक जैसा ही होता है
किताब ‘खत्म’ होते होते
‘शुरूआत’ का खयाल
फिरसे अच्छा लगने लगता है..
.....
नही थे हम यहां
नही भी थे वहां
जाने किस गली मे,
किन आॅंखो में
जिंदा थी ये आॅंखे, ये जहां
युहीं ना खिलते फूल
युहीं ना पतझड होती
गिरते हुये पत्तोंने
कैसे न कुछ कहा..
मौसमों की आड में
कितने बादल
आये, चले गये
भीगने की आड में
आंसूओ ने भरी आंह..
वो जो रास्ते हैं
जो दिलसे गुजरते है
सन्नाटों से भरे
क्युं छुने चले आसमाॅं..
लफ्जों की छांव में
मै देखुं यहां वहां
कलम ने कागज़ से
मुस्कुराके कुछ कहा..
नही थे हम यहां
नही भी थे वहां
जाने किस गली मे,
किन आॅंखो में
जिंदा थी ये आॅंखे, ये जहां..!!
संजीवनी
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