अमलताश

 



बारीश की बेबाक बुंदों को झकझोर कर

वो बचाती रही अपना आंगन, बहने से..

वो खडा था तब भी वहीं कोने मे..

खामोश भिगता रहा, अपने आप में सिमट कर..

 

मौसम बदलते गए..

कभी बिघडी हवा तो कभी ठन्ड की लहर

उसने संजोया तब भी अपना आंगन

धूल को बैठने ना दिया

ढालती रही उजडी सी जमीन, हाथ पसीने में निछोडकर

 

वो देख रहा था सब कुछ, वहीं कोने मे खडे हुए

जिस संजीदगी से वो रख रही थी खयाल अपने आंगन का,

खुद की परवाह भी न किए..

फिर आए दिन पतझड के

कोने में खडा वो टूटने लगा अंदरसे

एक-एक पत्ता, एक-एक बुटा..

रूबरू होने लगा मिट्टी से..

हर गिरते हुए पत्ते को उसने थामा अपने हाथोंमे

नहलाया आंखोंकी नमी से..

 

फिर एक दिन धूपने छेडा कोकिल स्वर

लहरा ऊठी जिंदगी, रुकी थी जो मायूस बनकर..

उसने देखा,

जो तब भी ढाल रही थी आंगन,

जलते सूरज की आंखों में आंखे डालकर,

कोने में खडा वो,

चमक रहा था आज, उसी सूरज सा.. खिलकर

 

यही सूनहरा सपना दिल में लिये तो,

वो संवर रही थी आंगन को उम्रभर

 

कोने में खडा अमलताश,

हाथोंमें हल्दी लिए,

आज खडा था सामने, खामोशी को छोडकर..!  

 

 

संजीवनी

 

 

 


टिप्पण्या

ravi म्हणाले…
क्या बात है... ह्ळूवार,,, स्पर्शून गेलं!

लोकप्रिय पोस्ट